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संपादकीय लेख


vol.9-13, 2018

 

 

भारत-आसियान संबंध: लुकसे एक्टईस्ट पॉलिसी

प्रो. के. स्वर्ण सिंह

इस वर्ष भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में दस मुख्य अतिथि उपस्थित थे. भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इतिहास में गणतंत्र दिवस समारोहों में सामान्यत: एक विदेशी नेता के मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होने की तुलना में केवल दो बार ऐसा हुआ है जब दो मुख्य अतिथि रहे हैं. इस बार यद्यपि दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों के परिसंघ-आसियान के सभी दस सदस्य देशों के राष्ट्रीय नेता भारत-आसियान मैत्री रजत जयंती शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिये नई दिल्ली के प्रवास पर थे और इसके उपरांत सभी ने भारत के राष्ट्रपति के साथ मिलकर गणतंत्र दिवस परेड का अवलोकन किया, जिसमें भारत की सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक विविधता को दर्शाया जाता है-और ये दोनों ही इन राष्ट्रों के साथ भारत की बढ़ती एकजुटता के विनिर्दिष्ट स्तम्भों के तौर पर उभरे हैं. भारत की लुक टू ईस्ट पॉलिसी के पिछले 25 वर्ष भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण घटक रहे हैं जिसकी शुरूआत तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने की थी. यह पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद वैश्विक संरचनात्मक बदलावों का हिस्सा था जिसके तहत श्री राव ने दक्षिण पूर्व एशिया की इन मज़बूत अर्थव्यवस्थाओं के साथ निकट संबंधों के निर्माण के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था को इनके साथ जोडऩे की शुरूआत की. 1990 के दशक में आसियान का छह सदस्यों से दस सदस्यों के तौर पर विस्तार भी देखने को मिला. इस तरह कम्बोडिया, लाओस, म्यामांर और वियतनाम को आसियान ने भारत के संवेदनशील पूर्वोत्तर क्षेत्र के साथ लगती लंबी ज़मीनी सीमाओं को जोडऩे का काम किया. छह मूल आसियान सदस्यों, जिनकी अर्थव्यवस्थाएं अधिक उन्नत थीं, की तुलना में ये नये सदस्य कम विकसित थे. यह भारत के लिये निवेश, प्रौद्योगिकी और प्रशिक्षण तथा शिक्षण के जरिए कौशल अंतरण के नये अवसर खोलना और इसे इन नये सदस्यों के विकास की प्रक्रिया में हाथ बंटाते हुए आसियान में एक प्रभावशाली भूमिका प्रदान करना था. साथ ही, आसियान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के बीच निकटतम भौतिक संपर्क से इस अशांत क्षेत्र में विकास गतिविधियां संचालित करने और वहां मौजूद राजनीतिक उथल-पुथल के समाधान की दिशा में भारत को मदद मिलने की भी आशा बनी. यह उनके संबंधों का एक दूसरे के लिये पूरक और पारस्परिक लाभ के लिये निर्माण करना था.

नया प्रसंग

यह ईज ऑफ डुईंग बिजनेस और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ भारत के संबंधों में प्रगाढ़ता के बीच, चीन की बढ़ती मुखरता उनकी मैत्री के लिये एक अन्य महत्वपूर्ण संचालक बन गई. भारत के लुकसे एक्टईस्ट की तरफ बढऩे की आवश्यकता को लेकर बहस की शुरूआत अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के 2011 के हैदराबाद भाषण से हो गई थी. यद्यपि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लुकसे एक्टईस्ट में रचनात्मक नीतिगत बदलाव की घोषणा सितंबर, 2014 में रंगून (म्यामांर) में 12वें आसियान शिखर सम्मेलन में अपनी पहली भागीदारी के दौरान ने की थी. यह उनकी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों और दर्जनों वैश्विक नेताओं के साथ ताबड़तोड़ बैठकों की अति सक्रिय विदेश नीति की शुरूआत का भी एक हिस्सा था. अत: इसे इन दस आसियान राष्ट्रों में से नौ की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्राओं-इनमें से कुछेक की दो बार की यात्रा-के परिणाम के तौर पर भी देखा जा सकता है कि इन सभी नेताओं के साथ उनके व्यक्तिगत संबंधों के कारण ही इन सभी की 2018 की गणतंत्र दिवस परेड में ऐतिहासिक एकजुटता संभव हो पाई. इसे कम से कम भारत आसियान संबंधों को ऊपर उठने की दिशा में दोनों पक्षों के लिये एक नई शुरूआत के तौर पर देखा जायेगा.

आसियान की तरफ से भी ऐसी अभूतपूर्व चेष्टा भारत की इन दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ अपनी इस रणनीतिक भागीदारी की मज़बूती और विस्तार को परिलक्षित करता है कि दोनों ही एशियाई संबंधों के संचालन में आसियान की केंद्रीयऔर वैधता‘‘ की अग्रणी भूमिका को समर्थन और स्वीकार करते हैं. आसियान की केंद्रीयता की बुनियाद इस सहमति पर टिकी है कि कोई प्रमुख शक्ति एक दूसरे के प्रमुख हितों को क्षति नहीं पहुंचने देंगेे. परंतु चीन का उभरना इस क्षेत्र के लिये माहौल में गर्मी उत्पन्न होने के तौर पर देखा जाता है. इस नये संदर्भ में, भारत और आसियान के मध्य बढ़ता सहयोग इनके परंपरागत एशिया-प्रशांत भू-राजनीति से नये भारत-प्रशांत ढांचे में परिवर्तन को लेकर भारत की केंद्रीय भूमिका एक क्रमिक प्रवाह के लिये उत्प्रेरक के तौर पर उभरी है. पहले से ही विशेषज्ञ भारत के बारे में यह अनुमान लगा चुके हैं कि वह अमेरिका के तेजी से संकुचित हो रहे क्षेत्रीय नेतृत्व के खालीपन को भरने की कोशिश में लगा है. आसियान इस संभावना के समर्थन में दिखाई पड़ता है. आसियान ने चीन के अभूतपूर्व उभार के प्रतिवाद के लिये भारत के साथ एक विकल्प के तौर पर संबद्धता की इच्छा जताई है.

यद्यपि भारत ने गुटनिरेपक्षता की अपनी नीति को बहु-जुटता की नीति के तौर पर पेश किया है, जिसके तहत इसके अभी तक उभरते रहे चीन के साथ टकराव से बचने के प्रयास रहे हैं. भारत की बहु- जुटता की नीति जितना भी संभव हो सकता है, अधिक से अधिक देशों के साथ जुडऩे की है और इसमें चीन के साथ जुडऩा भी शामिल है. उदाहरण के तौर पर पश्चिम एशिया में हमारी सऊदी अरब, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मैत्री है, परंतु इस्राइल के साथ भी है. यही सच्चाई पूर्वी एशिया के बारे में भी है जहां भारत के आस्ट्रेलिया, जापान और चीन के साथ-साथ रूस तथा आसियान से संबंध हैं. परंतु चीन के बढ़ते दबदबे के कारण, विशेषकर अमेरिका के तेज़ी से सिकुड़ते वैश्विक नेतृत्व की स्थिति ने शेष एशिया को, विशेषकर भारत और आसियान के लिये यूरोपीय देशों द्वारा क्षेत्रीय शक्ति संतुलन के निर्माण में अमरीका से अपनी स्वायत्तता कायम करने की दिशा में अपनाये गये मार्ग पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कोई अकेला देश स्थापित नियमों और संस्थानों को लेकर अहंकार कायम न कर सके.

चीन का आर्थिक प्रभाव

1990 के दशक की शुरूआत से लेकर चीन की अभूतपूर्व आर्थिक वृद्धि आसियान के साथ भारत की बढ़ती संबद्धता से जुड़ी है. वास्तव में, 1992 में आसियान के वार्ता सहयोगी बनने के भारत के निर्णय से लेकर, इसके बाद इसके आसियान क्षेत्रीय मंच में शामिल होने के फैसले, भारत-आसियान शिखर सम्मेलन की शुरूआत, अथवा पूर्व एशिया सम्मेलनों का वित्तपोषक सदस्य बनने आदि सभी घटनाक्रमों को इस व्यापक क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के नतीजे के तौर पर देखा जाता है. चीन की आर्थिक शक्ति 1997 के पूर्व एशिया वित्तीय संकट के दौरान देखने को मिली जब एक दलीय शासित चीन ने उनके बचाव के लिये आगे आने में अधिक तत्परता दिखाई जबकि अन्य सभी प्रमुख शक्तियां पीछे रह गईं. आज फिर दक्षिण चीन सागर के विवादित जल क्षेत्र में चीन के कृत्रिम द्वीपों के निरंतर निर्माण और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कोरीडोर ने भारत और आसियान को एकजुट करने में मदद की है और आसियान एक बार फिर भारत से क्षेत्र में प्रभावी भूमिका निभाने की आशा रखता है.

अत: 1997 के पूर्व एशिया वित्तीय संकट की तरह 2018 की गणतंत्र दिवस परेड में सभी दस आसियान राष्ट्रों के नेताओं की मौजूदगी इस क्षेत्र में क्षेत्रीय शक्ति संतुलन के उदय के एक ऐतिहासिक परिदृश्य को परिलक्षित करती है. आसियान का गठन 1967 में मूलत: अमरीका के चीन पर अंकुश और मुख्यत: कम्युनिस्टवाद के प्रसार को नियंत्रित करने की रणनीति के हिस्से के तौर पर हुआ था. तीन वर्ष बाद आसियान में आये वित्तीय संकट ने इसके चीन के साथ प्रमुख आर्थिक भागीदारी की नींव रखी. अत: दोनों ही इस बदलाव के इच्छुक हो सकते हैं यद्यपि इसने भारत और आसियान दोनों के लिये कठिन चुनौतियों उत्पन्न कर दीं. चीन का द्विपक्षीय व्यापार आसियान के साथ आज 450 अरब अमरीकी डॉलर और भारत, जिसका अभी आसियान के साथ 70 अरब अमरीकी डॉलर का व्यापार है, ने अब इसे 2020 तक 200 अरब अमरीकी डॉलर तक ले जाने का फैसला किया है. इसेे भी अच्छी महत्वाकांक्षा माना जाता है. यहां तक कि अमरीका, जिसका हाल तक क्षेत्र में सबसे बड़ा प्रभाव था, की भी चीन के साथ व्यापारिक भागीदारी भारत की अपेक्षा पांच गुणा अधिक थी. अब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड की पहलें इन विषमताओं को और चौड़ा करने के लिये तैयार दिखाई देती हैं.

चीन 12 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर की अर्थव्यवस्था और 4 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर के वार्षिक व्यापार, 3.5 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर के विदेशी मुद्रा भण्डार के साथ भारत से बहुत अधिक मज़बूत स्थिति में रहा है जिसका इसकी तुलना में 2.6 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था और 1 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर से भी कम का व्यापार और कऱीब 400 मिलियन विदेश मुद्रा भण्डार है. राजनीतिक तौर पर भी चीन के एक दलीय शासन और शी जिनपिंग के चीन के निर्विरोध सर्वोच्च नेता के तौर पर उभरने की तुलना में भारत की बहुदलीय राजनीतिक परिदृश्य और विविधताओं से संचालित संघवाद संकट से उबारने में बोझिल प्रतीत होता है. परंतु इसी से ही जारी बदलाव परिलक्षित होता है जहां भारत चीन की अपेक्षा अपने हितों को साधने के लिये आसियान के साथ अपने संबंधों का आधार व्यापक करने के प्रयास कर रहा है. जबकि भारत आज आसियान के साथ रणनीतिक और आर्थिक सहयोग को मज़बूत करना चाहता है, यह दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ भारत के लोकतांत्रिक और सभ्यतामूलक संबंधों को भी आगे बढ़ाने पर ज़ोर दे रहा है. भारत और आसियान के बीच व्यापक आधार वाले ये संबंध चीन की आर्थिक कुशलता के आगे भारत की मज़बूती और आसियान की व्यापार संचालित एकजुटता को दर्शाने का अवसर प्रदान करते हैं.

नियमों और संस्थानों का सुदृढ़ीकरण

चीन की सैन्य और आर्थिक शक्ति के प्रदर्शन का प्रतिवाद करते हुए भारत भी नियम व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण चाहता है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी राष्ट्र स्थापित नियमों और संस्थानों का सम्मान करें. आसियान आज के दिन एशिया में न केवल सर्वाधिक सांस्थानिक क्षेत्रीय संगठन है बल्कि यह प्रमुख वैश्विक शक्तियों के लिये भी सर्वाधिक स्वीकार्य है जिसकी इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता में भागीदारी है. आसियान की ये गतिशील अर्थव्यवस्थाएं लोकतांत्रिक हैं और भारत के साथ अपनी लोकतांत्रिक प्रामाणिकता के लिये जुडऩा चाहती हैं. इसे भारत के अटलांटिक से प्रशांत तक वैश्विक शक्ति के तौर पर परिवर्तित होने के भारत के वर्धित उदय के भाग के परिणाम के तौर पर भी देखा जा सकता हैं. भारत-आसियान संबंध सी3 -संस्कृति, व्यापार, संपर्क के साथ कठोर से नरम शक्ति के तौर पर उभरने के बहाव के उदाहरण को भी प्रस्तुत करते हैं जिससे उनके भविष्य के सहयोग की व्यापकता परिलक्षित होती है. न तो भारत और न ही आसियान को किसी प्रादेशिक अभ्युदय अथवा आक्रामक व्यवहार के लिये जाना जाता है जो उन्हें चीन से अलग करता है. परंतु दोनों पक्ष अभी तक चीन की उभरती आर्थिक शक्ति के साथ अपनी निरंतर संलग्नता के विरोधाभास और बेचैनी को दूर या समाप्त करने में विफल रहे हैं. डोकलाम में, सर्वाधिक हाल के भारत के 73 दिन लंबे सैन्य गतिरोध में, जिसमें भारत चीन के सामने डटा रहा था, आसियान को किसी का भी पक्ष लेने में सावधानी बरतते पाया गया. इसी प्रकार दक्षिण चीन सागर में नौवहन की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर अमरीकी ठिकानों के लिये भारत का समर्थन कभी कभार ही देखने को मिला जो कि अभी चीन की कड़ी प्रतिक्रिया को लेकर संवेदनशील बना रहा है.

भारत और आसियान चीन के साथ अपनी बढ़ती विषमताओं के बारे में अवगत हैं. विशेषकर ऐसे वक्त जब अमरीका के अंतर प्रशांत भागीदारी से हटने के बाद चीन का नेतृत्व क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी का निर्माण करने के साथ-साथ अपने एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक जैसे अन्य कदम उठा रहा है जहां भारत दूसरे सबसे बड़े स्टेकहोल्डर के तौर पर खड़ा है. इसी तरह भारत चीन को शंघाई सहयोग संगठन और रूस-भारत-चीन रणनीतिक त्रिभुज में संलग्न कर रहा है जबकि अमरीका-जापान-भारत-आस्ट्रेलिया का 2007 में लोकतंत्रों के चतुर्भुज की शुरूआत चीन की कठोर प्रतिक्रिया के बाद मृतप्राय: हो गई. अमरीका की क्षेत्रीय नेतृत्व की भूमिका लेने की इस जिद्द ने ऐसी स्थिति को जन्म दिया जहां चीन यहां तक कि संस्थान निर्माण और कार्यसूची की स्थापना में भी अग्रणी रूप में देखा जाने लगा. परंतु हाल के महीनों में बे्रक्सिट और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों ही पिछले नवंबर में 2007 के अपने पुराने चुतुर्भज को बहाल करने और अमरीका-जापान-भारत तथा अमरीका-भारत-आस्ट्रेलिया त्रिभुजों की नई सक्रियता का आहवान करते देखे गये. इस घटनाक्रम ने इस नये व्यावहारिक दृष्टिकोण की तात्कालिक पृष्ठभूमि को जन्म दिया जहां भारत और आसियान चीन की न्यूनतम काउंटरबैलेंसिंग सुनिश्चित करने की लचीली सामंजस्य रणनीतियां अपना रहे हैं.

यद्यपि यह नई शुरूआत भविष्य के लिये फलदायी हो सकती है परंतु समूचे दक्षिण चीन सागर पर कृत्रिम द्वीप बनाने को लेकर चीन के साथ उनकी बेचैनी से आसियान को एक विभाजित घर के तौर पर देखा जा सकता है. यहां तक कि वियतनाम और फिलीपीन्स-इस विवादित दक्षिण चीन सागर और इसके द्वीपों को लेकर अपने समानांतर दावों के साथ चीन के दो मज़बूत प्रतिभागी-ने भी चीन के अपनी तीव्र शक्ति के प्रभाव, प्रतिवाद, बहस और निर्णयों के प्रयोग पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दी हैं. फिलीपीन्स के चीन के विरुद्ध दायर मामले में हेग की कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ने जून 2016 के फैसले में दक्षिण चीन सागर पर चीन के ऐतिहासिक दावों को अवैध करार दे दिया था लेकिन चीन और राष्ट्रपति रोड्रिगो डुटर्टे दोनों ने इसे मिलकर नजऱअंदाज करने का फैसला किया. भारत-आसियान शिखर सम्मेलन की दिल्ली घोषणा में न केवल दक्षिण चीन सागर का स्पष्ट उल्लेख किया गया बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिये मिलकर काम करने पर ज़ोर दिया गया कि सभी संगत देश समुद्री कानूनों संबंधी संयुक्त राष्ट्र समझौते, आचार संहिता घोषणा और अंतर्राष्ट्रीय समुद्री ब्यूरो और संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निर्धारित अन्य शर्तों का पालन करें. इसमें समुद्री सुरक्षा का भारत-आसियान सहयोग के लिये भविष्य में अपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय के तौर पर स्पष्ट उल्लेख किया गया है.

भू-सभ्यता संपर्क

 भारत-आसियान संयुक्त पहलों की प्रभावकारिता सुनिश्चित करने के लिये जो कुछ आशा बनी है वह यह है कि वे अब अपने व्यापक भू-सभ्यतात्मक संबंधों को व्यापक करने की भू-रणनीति के निर्माण पर ज़ोर दे रहे हैं. यह दुनिया की सभी प्रमुख शक्तियों और उनकी जनता को अधिक प्रभावकारी और स्वीकार्य होना चाहिये जो कि उनके नेताओं की पहलों के पीछे घरेलू जनता को खड़ा पायेंगे. भारत और आसियान दोनों ने अपनी सभ्यताओं के संबंधों को उजागर करने पर ध्यान देने का फैसला किया है जो प्राचीन समय से जुड़ी थीं और पहली सहस्राब्दि के अंत तक एकजुट थीं, जब इस्लाम और बाद में ईसाई मज़बूत दबदबे के साथ उभरकर आये थे. प्राचीन ग्रंथ रामायण इन सभी देशों के साथ भारत के गूढ़ रिश्तों का अनुपम उदाहरण है जो कि शताब्दियों से चलते आये हैं और अब भी रामायण उनकी संस्कृति तथा रोज़मर्रा की जिं़दगी के दृष्टिकोण से जुड़ी है. भारत-आसियान मैत्री रजत जयंती शिखर सम्मेलन में 25 जून को एक विशेष डाक टिकट जारी की गई  और भारत ने सप्ताह भर चले रामायण उत्सव का आयोजन किया जो कि 20 जनवरी, 2018 को शुरू हुआ था. इस उत्सव में इन दस दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से 120 से अधिक कलाकारों ने रामायण के विभिन्न रूपांतरों को प्रदर्शित किया.

बौद्ध धर्म भी उनके मध्य समान रूप से मज़बूत संबंधों का सूत्र बना रहा है. राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म नेपाल में लुम्बिनि में हुआ था. परंतु उन्हें ज्ञान और बौद्ध धर्म की प्राप्ति भारत में हुई, अतएव वे गया में जन्मे थे. बाद में सम्राट अशोक महान हुए जिन्होंने एशिया में, विशेषकर दक्षिण पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाया. आज के दिन कम्बोडिया में बौद्ध धर्म राजकीय धर्म है, म्यामांर की 87 प्रतिशत जनसंख्या, सिंगापुर की 33 प्रतिशत, मलेशिया की 20 प्रतिशत, वियतनाम की 12 प्रतिशत जनसंख्या बौद्ध धर्म से है. परंतु यहां फिर पिछले दशक में चीन को द्विवार्षिक मेगा सम्मेलन के साथ विश्व बौद्धक मंच में अग्रणी भूमिका में पाया गया. इसकी पहल 2006 में चीन के राष्ट्रपति हु जिन्ताओ ने की थी परंतु चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इसका आयोजन किया जो कि उस वक्त झेनजियांग में पार्टी के सचिव थे. भारत भी इसी तरह के प्रयास कर रहा है परंतु भारत और आसियान दोनों को यह सुनिश्चित करने के लिये मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है कि चीन इस सांस्कृतिक संवाद को भी अपहृत न कर पाये. चीन में बौद्धों को विशेषकर तिब्बत में अपनी मत भिन्नता के लिये कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ा है और यहां तक कि चीन में भी उनके भारत के साथ निकट संबंध कायम रहे हैं. अत: अंतर-सामाजिक संबंधों के निर्माण में बौद्ध धर्म को जटिल अंतर-राष्ट्रीय संबंधों का शिकार नहीं होने देना चाहिये.

बौद्ध धर्म के अलावा इंडोनेशिया और मलेशिया में क्रमश: 87 प्रतिशत और 61 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या है और फिलीपीन्स में 92 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या है जो कि भारत के बहु सांस्कृतिक इतिहास और परिवेश को देखते हुए भारत के साथ समान रूप से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं. वास्तव में, आसियान के सबसे बड़े देश इंडोनेशिया के सभी नेताओं ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि यद्यपि वे इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं लेकिन उनकी जड़ें सांस्कृतिक रूप से भारतीय परंपराओं से जुड़ी हैं. भारत दुनिया की मुस्लिम जनसंख्या का दूसरा सबसे बड़ा गृह है और यहां बड़ी संख्या में ईसाई जनसंख्या भी है. ये भारतीय बहु सांस्कृतिक संबंध दक्षिण एश्यिाई भाषाओं, नामों, लोक साहित्य, मूर्तिकला, वास्तुकला, गीत और संगीत परंपराओं में अब तक भी परिलक्षित होते हैं. 802 एडी में नरेश जयवरमन ने अपने काम्बुजा (आज का कम्बोडिया) और आंगकोरवट साम्राज्य की स्थापना के लिये सभी खमेर गुटों को एकजुट किया था-जिसके पुनर्गठन में भारत की सतत भागीदारी परिलक्षित होती है-आज के दिन शायद ये उनके महत्वपूर्ण निकटतम भू-सभ्यता संबंधों के उपयुक्त चिन्ह प्रतीत होते हैं.

आगे का मार्ग

अत: निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है भारत-आसियान का यह भू-सभ्यता संबंध ही है जो कि उनकी भू-रणनीतिक साझेदारी को दर्शाता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन का भी दक्षिणपूर्व एशिया के साथ सांस्कृतिक संबंध है परंतु इसकी सांस्कृतिक क्रांति का संस्कृति पर वैचारिक विशेषाधिकार संपर्क रहा और हाल के दिनों में चीन को आसियान के साथ मज़बूत वाणिज्यिक संबंधों पर अधिक ज़ोर देते देखा गया है. यही वजह है कि भारत और आसियान को चीन के साथ तेज़ी से विमुख होते देखा गया है. और यही वजह भी है कि भारत और आसियान के मध्य एक दूसरे के प्रति निकटता बढ़ी है. तेज़ी के साथ प्रौद्योगिकियों के समावेश से आम आदमी के सशक्तिकरण से राष्ट्रीय नीतियों के निर्धारण में अंतर-सामाजिक संबंध का प्रभाव तेज़ी से बढ़ेगा. और जैसा कि भारत और आसियान अपनी विशिष्टताओं को तलाशेंगे उनसे उनकी अपनी लोकतांत्रिक प्रणालियों को मज़बूती मिलेगी और आम लोगों के साथ संपर्क कायम होगा जिससे उन्हें अपने स्वयं के राष्ट्रीय हित और आकांक्षाओं पर चीन के नकारात्मक प्रभाव का मुकाबला करने में सहायता मिलेगी. यही वे बाते हैं जिनमें कौशल निर्माण, प्रशिक्षण और सूचना के आदान-प्रदान का लोगों के साथ सभी स्तरों पर अंतर सामाजिक संपर्क से अपनी अंतर-राष्ट्रीय पहलों की पृष्ठभूमि के साथ भारत-आसियान साझेदारी के व्यापक आधार के लिये उनके प्रयासों का उल्लेख किया गया है. वे आज अपने लोगों की स्मार्ट ऊर्जा के साथ चीन की कुशाग्र ऊर्जा का मुकाबला करने का मार्ग तलाश रहे हैं.

(लेखक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन विद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं)